जोधपुर की प्याज कचौरी, अजमेर की कढ़ी कचौरी, जयपुर की आलू कचौरी, कोटा की हींग वाली कचौरी। इन जायकों का स्वाद आपने जरूर चखा होगा।
कभी सादा तो कभी लाल-हरी चटनी में तो कभी कढ़ी के साथ कचौरी तो खाई ही होगी। आज हम आपको लेकर चलते हैं भीलवाड़ा। यहां की प्रसिद्ध हरिभाई की दही वाली कचौरी की बात ही कुछ और है।
लौंग-काली मिर्च के तीखे स्वाद वाली इस कचौरी में कई ऐसे सीक्रेट मसाले डाले जाते हैं, जिनका स्वाद अगर एक बार मुंह को लग जाए तो आसानी से छूटता ही नहीं है।
वस्त्रनगरी के नाम से विख्यात भीलवाड़ा में अगर कचौरी खाने का मन करे तो लोग आपको सीधे बाजार नंबर तीन में ले जाकर हरी भाई कचौरी वाले के यहां ले जाकर खड़ा कर देंगे। यूं तो भीलवाड़ा में 100 से ज्यादा दुकानों पर कचौरी बिकती है, लेकिन हरी भाई की कचौरी खास है। कड़ाही में मूंग की दाल और सीक्रेट मसालों से तैयार होने वाली दही कचौरी की शुरुआत करीब 50 साल पहले हरि सिंह पंवार ने की थी।
कई शहरों में कचौरी को चटनी, कढ़ी या आलू की सब्जी के साथ परोसा जाता है। यहां कचौरी के ठंडे दही के साथ खाते हैं। कचौरी इतनी खस्ता होती है कि लोग अलग से चटनी या कढ़ी की डिमांड ही भूल जाते हैं।
मारवाड़ से आकर शुरू किया कचौरी का जायका
मिलन टॉकीज के सामने हरि भाई कचौरी की दुकान चलाने वाले भूपेंद्र सिंह पंवार बताते हैं- भीलवाड़ा में करीब 50 साल पहले उनके दादा हरि सिंह पंवार मारवाड़ से पलायन करके आए थे। परिवार पहले नागौर जिले के लापोलाई में रहता था।3
यहां आकर उन्होंने एक हलवाई के पास नौकरी की। बाद में चाय का ठेला लगाया। एक बार उनके किसी दोस्त ने राय दी कि कचौरी का व्यापार काफी अच्छा हो सकता है। दादाजी ने अपने दोस्त की सलाह पर कचौरी बनाना शुरू किया।
आमतौर पर बाकी शहरों में कचौरी के साथ हरी, सौंठ की चटनी, आलू की सब्जी या कढ़ी परोसी जाती है। दादाजी कुछ अलग करना चाहते थे। उन्होंने ऐसी खस्ता कचौरी तैयार की कि लोग चटनी मांगते ही नहीं थे। लौंग और काली मिर्च के अलावा उन्होंने अपना सीक्रेट मसाला तैयार कर लिया था, जिससे कचौरी का जायका डबल हो जाता था।
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