जुलाई 2020 में बाड़ेबंदी के साथ हार गई थी कांग्रेस:जनता को घमंड बर्दाश्त नहीं, गहलोत V/S पायलट फैक्टर से भारी नुकसान, रिजल्ट में क्या छिपा है

जयपुर

सनातन, हिंदुत्व और मोदी की गारंटी ने राजस्थान में रिवाज को बरकरार रखते हुए राज को बदल दिया। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मुफ्त की योजनाएं और गारंटियां पिछले 30 साल से चल रही परिणाम बदलने की परंपरा को नहीं तोड़ पाईं।

भविष्यवाणी के लिए इन नतीजों में काफी कुछ है। कांग्रेस के लिए भारी चिंताएं हैं- क्योंकि सबसे प्रतिष्ठित राज्य राजस्थान तो उसने गंवा ही दिया, छत्तीसगढ़ भी हाथ से निकल गया।

पिछले दो चुनाव से लोकसभा में एक सीट के लिए तरस रही कांग्रेस के लिए 2024 का चुनाव बड़ी चुनौती से कम नहीं होगा। हार की सबसे बड़ी वजह वो खुद है।

असल में कांग्रेस जुलाई 2020 में उसी दिन हार गई जब गहलोत और पायलट खेमे की अलग-अलग बाड़ेबंदी हुई थी। सितंबर 2022 में इसका फाइनल रिहर्सल भी हो गया था। नतीजा 3 दिसंबर, 2023 को आया।

अशोक गहलोत और सचिन पायलट के विवाद ने पार्टी को हाशिए पर धकेल दिया। पूरा चुनाव गहलोत ने अपने स्तर पर लड़ा और उनका मुकाबला सीधे मोदी से रहा।

मोदी ने गहलोत के हाथ से सत्ता छीन ली। उधर, मोदी ने राजस्थान में अलग तेवर अपनाते हुए जो गारटेंड फॉर्मूला दिया उसे जनता ने स्वीकार कर लिया।

इस चुनाव में एक रोचक ट्रेंड ये भी देखने को मिला, जिसमें दो पार्टियों के बड़े दिग्गज हार गए। भले भाजपा से पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया हो या नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़।

वसुंधरा की कोर टीम के भी कई लोग चुनाव हार गए। इसमें पूर्व मंत्री प्रभुलाल सैनी, प्रहलाद गुंजल, नरेंद्र नागर जैसे नेता शामिल हैं। उधर, कांग्रेस के विश्वेंद्र सिंह, प्रताप सिंह खाचरियावास, बीडी कल्ला, रामलाल जाट, भंवरलाल भाटी जैसे मंत्री हार गए।

इस रिजल्ट से उठने वाले सवालों को समझते हैं? साथ ही भविष्य की राजनीति को ये चुनाव कितना और कैसे प्रभावित करेगा ये जानते हैं…

बाय-बाय : सीएम अशोक गहलोत ने परिणामों के बाद शाम को राजभवन जाकर राज्यपाल कलराज मिश्र को मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया।

बाय-बाय : सीएम अशोक गहलोत ने परिणामों के बाद शाम को राजभवन जाकर राज्यपाल कलराज मिश्र को मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया।

भाजपा की इस जीत का सबसे बड़ा कारण क्या है?

भाजपा की आक्रामक रणनीति। सनातन और हिंदुत्व के मुद्दे के साथ पार्टी ने युवाओं पर फोकस किया। लाल डायरी के माध्यम से बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे को हवा दी।

महंगाई की नब्ज पकड़ते हुए गहलोत की गारंटी पर मोदी की गारंटी लाए। पेट्रोल की रेट पर पुनर्विचार की बात की गई। चुनाव के आखिरी में ओपीएस पर पुनर्विचार की बात कर तीनों राज्यों को संजीवनी दे दी। ये काफी निर्णायक रहा।

गुजरात की तरह राजस्थान में संगठन काफी मजबूत रहा। कमजोर सीटों पर संघ ने अपनी कमान संभाली। जयपुर में सिविल लाइंस में नए कैंडिटेट ने गहलोत सरकार के मंत्री को हरा दिया।

क्या मोदी के दम पर इतनी बड़ी जीत संभव है?

हां। राजस्थान में चुनाव की पूरी कमान मोदी ने संभाल रखी थी। यहां किसी चेहरे को आगे करने के बजाय भाजपा ने ब्रांड मोदी को ही जनता के बीच रखा था।

इसका बड़ा कारण था ये चुनाव मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ सीधे था। 2013 के विधानसभा चुनाव में मोदी लहर में भाजपा को ऐतिहासिक 163 सीटें मिली थीं।

चुनाव इस मायने में भी खास था कि पहली बार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच मुकाबला था। आक्रामक रणनीति से भाजपा ने ये मुकाबला जीत लिया।

चुनाव इस मायने में भी खास था कि पहली बार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच मुकाबला था। आक्रामक रणनीति से भाजपा ने ये मुकाबला जीत लिया।

भाजपा की सबसे बड़ी रणनीति क्या रही?

भाजपा ने कांग्रेस की कमजोर नस पर प्रहार किया। गहलोत और पायलट गुट के विवाद का पूरा फायदा उठाया। चुनाव के आखिरी दिनों में सचिन पायलट और उनके पिता राजेश पायलट के साथ अन्याय होने की बात कहकर गुर्जरों के अंसतोष को और बढ़ाया। इसका नतीजा रहा कि पूर्वी राजस्थान में कांग्रेस पिछड़ गई।

इसके अलावा उदयपुर के कन्हैयालाल मामले के जरिए हिन्दू वोट बैंक का ध्रुवीकरण किया गया। एक भी मुस्लिम को कैंडिडेट नहीं बनाया गया। तीन संतों को टिकट देकर हिंदुत्व की छवि पेश की। तीनों बड़े मार्जिन से जीत गए।

कांग्रेस की हार के और बड़े कारण क्या हैं?

सही मायने में कहे तो ये चुनाव गहलोत ने ही लड़ा था। कांग्रेस के बाकी नेता इसे हारा हुआ ही मान चुके थे। किसी ने कोई बड़ी ताकत नहीं दिखाई। चुनाव प्रचार के आखिरी दिन राजस्थान में कांग्रेस के किसी राष्ट्रीय नेता की सभा तक नहीं हुई। शुरू से प्रचार फीका रहा। प्रेस कॉन्फ्रेंस से आगे नहीं बढ़ पाया। सचिन पायलट अपने इलाके या अपने समर्थकों तक ही सिमटे रहे। हालांकि वे दीपेंद्र सिंह, इंद्रराज गुर्जर, वेदप्रकाश सोलंकी जैसे अपने समर्थकों को भी नहीं बचा सकें।

  • कांग्रेस की हार के पीछे बड़ी वजह पूर्वी राजस्थान में हुई बड़ी हार है। जयपुर संभाग में 50 सीटों में से कांग्रेस ने 2018 में बंपर 34 सीटें हासिल कीं थीं। इस बार ये आंकड़ा काफी गिर गया। इसके अलावा मेवाड़, मारवाड़ और मेरवाड़ा में भी कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली।
  • दूसरा, मोदी ने डबल इंजन की सरकार का जो नारा दिया, वो काम कर गया। कांग्रेस जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही थी, उनमें चिरंजीवी योजना को छोड़ दें बाकी का लाभ जनता तक नहीं पहुंच पाया। फ्री मोबाइल, फ्री राशन किट, ग्रामीण क्षेत्रों में इंदिरा रसोई जैसी योजनाओं को लागू करने में बहुत देरी हो गई।

चुनावी सभाओं से लेकर रोड शो तक पीएम मोदी ने राजस्थान जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। वहीं दूसरी तरह कांग्रेस स्तर के किसी भी नेता ने प्रचार के अंतिम दिन सभा तक नहीं की।

चुनावी सभाओं से लेकर रोड शो तक पीएम मोदी ने राजस्थान जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। वहीं दूसरी तरह कांग्रेस स्तर के किसी भी नेता ने प्रचार के अंतिम दिन सभा तक नहीं की।

क्या गहलोत सरकार के प्रति असंतोष था?

इसमें सरकार के प्रति असंतोष से ज्यादा गुस्सा विधायकों और मंत्रियों को लेकर था, जो दिख रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले ही कहते रहे कि पिछले चुनावों की तरह इस बार एंटी इनकम्बैंसी नजर नहीं आ रही, लेकिन ये सच था कि कांग्रेस के मंत्रियों और विधायकों के प्रति नाराजगी थी। राजस्थान में पिछले 6 विधानसभा चुनावों को देखें, तो सरकार में रहते कोई भी पार्टी जनता का विश्वास नहीं जीत पाई।

गहलोत और पायलट गुट का विवाद का चुनाव पर कितना असर पड़ा?

हर कारण में ये शामिल है। पूरे पांच साल गहलोत अपनी सरकार बचाने के जतन करते रहे। हालात ये रहे कि कांग्रेस के पास बूथ लेवल तक का संगठन नहीं था। पूरे पांच साल कई संस्थानों यूआईटी और जेडीए में नियुक्तियां नहीं की गई। चार साल तक जिलाध्यक्ष और ब्लॉक अध्यक्ष तक नहीं थे। आपसी रस्साकशी के चलते जनता के बीच सरकार का अनुशासन सवालों के घेरे में आ गया।

गहलोत और पायलट के बीच विवाद के कारण कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ।

गहलोत और पायलट के बीच विवाद के कारण कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ।

बड़े पैमाने पर मंत्रियों और विधायकों की हार के क्या संकेत हैं?

सर्वे में जनता की मंत्रियों व विधायकों से नाराजगी की बात सामने आने के बाद भी 90 फीसदी से अधिक विधायकों को वापस उन्हीं सीटों पर उतार दिया। मंत्री महेश जोशी, विधायक भरोसी लाल जाटव, जोहरीलाल मीणा जैसों के अलावा दूसरों के न तो टिकट काट पाए और न ही सीट बदली। स्थानीय स्तर पर मंत्रियों व विधायकों के भ्रष्टाचार व अहम के मुद्दे उभरने लगे। यह तक कहा जाने लगा कि हर विधानसभा सीट पर एक सीएम बन गया है। यह भी लोगों से सुनने में आया कि जितनी इस सरकार में विधायकों की चल रही है, उतनी तो किसी सरकार में नहीं चली। मर्जी से चहेतों के तबादले करवाए। दलालों के जरिए लेन-देन तक के आरोप लगे, जिससे बाकियों की नाराजगी उठानी पड़ गई। वोटिंग के जरिए लोगों ने अपनी भड़ास निकाल ली।

इस चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर क्या है?

राजस्थान में तीसरे दल के लिए कोई बड़ी जगह नहीं बन पाई। हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी पूरी तरह से सिमट गई। पिछली बार तीन सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वे खुद फंस गए। इस बार बड़े दल के रूप में दावा कर रहे थे, लेकिन उन्हें एक सीट ही मिली। आरएलपी ने भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के वोट कांटे। वहीं, ऐसा ही बीएपी ने वागड़ के आदिवासी अंचल में किया। बीएपी ने 3 सीटें जीत गई। पिछले चुनाव में 6 सीटें जीतने वाली बसपा इस बार 2 सीटें जीत पाई। करीब आधा दर्जन सीटें निर्दलीयों ने हासिल कीं।

इन चुनावों में हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी पूरी तरह से सिमट गई। पिछली बार तीन सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वे खुद फंस गए।

इन चुनावों में हनुमान बेनीवाल की पार्टी आरएलपी पूरी तरह से सिमट गई। पिछली बार तीन सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वे खुद फंस गए।

जिले बनाने से कांग्रेस को कोई फायदा हुआ क्या?

कांग्रेस ने आखिरी बजट में 17 जिले बनाने का मास्टर स्ट्रोक खेला था, लेकिन सबसे छोटे जिले दूदू पर कांग्रेस सबसे पहले हारी। इसके अलावा डीडवाना और फलोदी में कोई फायदा नहीं हुआ। यहां भाजपा से बागी और निर्दलीय युनूस खान जीत गए। फलोदी जहां सालों से जिला बनाने की बात थी, वहां भी कांग्रेस हार गई। कुल मिलाकर जिला बनाने के फायदे कम नुकसान ज्यादा हुए।

चिरंजीवी, फ्री मोबाइल, ओपीएस का मुद्दा कितना प्रभावी?

फ्री इलाज के लिए चिरंजीवी योजना, फ्री मोबाइल और ओपीएस जैसी योजनाओं का इस चुनाव में प्रभाव रहा है। क्योंकि 2003 और 2013 वाली हार कांग्रेस ने नहीं दोहराई। अधिकतर योजनाओं का लाभ भले ही देरी से मिला हो, लेकिन थोड़ा असर जरूर रहा जिससे कांग्रेस को एक सम्मानजक हार मिली।

चिरंजीवी योजना, फ्री मोबाइल और ओपीएस का चुनावों में प्रभाव दिखा। यही वजह है कि 2003 और 2013 के मुकाबले इस बार कांग्रेस सम्मानजनक तरीके से हारी।

चिरंजीवी योजना, फ्री मोबाइल और ओपीएस का चुनावों में प्रभाव दिखा। यही वजह है कि 2003 और 2013 के मुकाबले इस बार कांग्रेस सम्मानजनक तरीके से हारी।

गहलोत-पायलट गुट के कितने जीते - कितने हारे

गहलोत गुट : बीडी कल्ला, सालेह मोहम्मद, प्रताप सिंह खाचरियावास, प्रमोद जैन भाया, सुखराम विश्नोई, परसादी लाल मीणा, रामलाल जाट, भंवरसिंह भाटी, रमेश मीणा, गोविंदराम मेघवाल, ममता भूपेश, शकुंतला रावत, राजेंद्र यादव, जाहिदा खान जैसे मंत्री हार गए। वहीं, शांति धारीवाल, विश्ववेंद्र सिंह, उदयलाल आंजना, टीकाराम जुली, महेंद्रजीत सिंह मालवीय, मुरारी लाल मीणा, अशोक चांदना, अर्जुन बामनिया और आरएलडी गठबंधन वाली सीट से सुभाष गर्ग ने जीत हासिल की।

पायलट गुट : वेद प्रकाश सोलंकी, दीपेंद्र सिंह, अमर सिंह, राकेश पारीक, इंद्रराज गुर्जर जैसे नेताओं को हार मिली। वहीं, मंत्री बृजेंद्र ओला, हरीश मीणा, समरजीत सिंह, मुकेश भाकर, रामनिवास गावड़िया अपनी सीट बचाने में सफल रहे।

पांच चौंकाने वाली हार और उसकी वजह

कांग्रेस : विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी की हार की वजह व्यवहार को लेकर शिकायतें व उनके सामने पूर्व राजपरिवार के प्रत्याशी होना रहा। इसी तरह मंत्री विश्वेंद्र सिंह काे भी खेमा बदलने के कारण गुर्जर वोट नहीं मिले। एक हार और मंत्री जाहिदा खान की है, जो नौक्षम चौधरी से हारी। नौक्षम हरियाणा में चुनाव हारी और यहां जीत गई।

भाजपा : नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ की हार की बड़ी वजह सीट बदलना रहा। वहीं सतीश पूनिया उपनेता प्रतिपक्ष प्रदेश अध्यक्ष रहते अपने क्षेत्र में समय कम दे पाए। ज्योति मिर्धा के सामने हरेंद्र हरेंद्र मिर्धा को खड़ा करना कांग्रेस की सफल रणनीति रही।

मुख्यमंत्री की रेस में शामिल भाजपा के दो दिग्गज नेता राजेंद्र राठौड़ और सतीश पूनिया अपनी सीट नहीं बचा पाए।

मुख्यमंत्री की रेस में शामिल भाजपा के दो दिग्गज नेता राजेंद्र राठौड़ और सतीश पूनिया अपनी सीट नहीं बचा पाए।

राजस्थान में मुख्यमंत्री फेस कौन होगा?

इसका सवाल ठीक से दे पाना असंभव है। सबसे पहला दावा वसुंधरा राजे का हैं, क्योंकि वो दो बार मुख्यमंत्री रही हैं, लेकिन पिछले पांच साल में जिस तरह उनकी उपेक्षा की गई और अब पूर्ण बहुमत से उनके लिए चुनौती दिख रही है। हालांकि वे अंतिम समय तक संघर्ष करेंगी। सीएम के दो अन्य फेस जिसमें राजेंद्र राठौड़ और सतीश पूनिया चुनाव हार गए। अब जो बचे हुए चेहरे हैं, इनमें अर्जुन मेघवाल, सीपी जोशी प्रमुख हैं, लेकिन दीया कुमारी, बालकनाथ के नाम चल रहे हैं। इसके अलावा केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अश्विनी वैष्णव, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला, ओम माथुर, पूर्व संगठन मंत्री रहे प्रकाश चंद के नाम की भी चर्चा हैं।

भाजपा में फिलहाल सीएम बनने के लिए कई दावेदार हैं, लेकिन बनेगा कौन...इसका जवाब सिर्फ नरेंद्र मोदी और अमित शाह जानते हैं।

भाजपा में फिलहाल सीएम बनने के लिए कई दावेदार हैं, लेकिन बनेगा कौन...इसका जवाब सिर्फ नरेंद्र मोदी और अमित शाह जानते हैं।

नए चेहरों का क्या हुआ, कितने जीते-कितने हारे

कांग्रेस : डॉ. शिखा बराला, पितराम काला जैसे पहली बार विधानसभा पहुंचेंगे। वहीं, कड़े मुकाबले में आरआर तिवाड़ी, अभिषेक चौधरी जैसों को हार नसीब हुई।

भाजपा : बालमुकुंद आचार्य, गोपाल शर्मा, भजनलाल, नौक्षम चौधरी जैसे नेताओं ने अपना पहला विधानसभा चुनाव जीता। वहीं, चंद्रमोहन बटवाड़ा, रवि नैयर, उपेन यादव, राजेश दहिया जैसे चेहरों को जीत हासिल नहीं हो पाई।

मंत्रियों में कितने जीते-कितने हारे

ये हारे : बीडी कल्ला, सालेह मोहम्मद, प्रताप सिंह खाचरियावास, प्रमोद जैन भाया, परसादी लाल मीणा, रामलाल जाट, भंवरसिंह भाटी, रमेश मीणा, गोविंदराम मेघवाल, ममता भूपेश, सुखराम विश्नोई, शकुंतला रावत, राजेंद्र यादव, जाहिदा खान।

ये जीते : शांति धारीवाल, विश्ववेंद्र सिंह, उदयलाल आंजना, टीकाराम जुली, महेंद्रजीत सिंह मालवीय, मुरारी लाल मीणा, अशोक चांदना, अर्जुन बामनिया ओर आरएलडी गठबंधन से सुभाष गर्ग।

सांसदों का क्या हुआ ?

भाजपा ने उतारे 7 सांसदों में से तीन सांसद अपनी विधानसभा सीट नहीं बचा पाए। इनमें भागीरथ चौधरी, देवजी पटेल और नरेंद्र खींचड़ शामिल हैं। वहीं, चार सांसद किरोड़ी लाल मीणा, दीया कुमारी, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, बाबा बालकनाथ चुनाव जीत गए।

अंत में: चुनाव से देश की राजनीति पर क्या असर?

ये नतीजे आमचुनाव का सेमीफाइनल था। इसमें जनता ने बता दिया कि मंत्रियों और विधायकों का धमंड बर्दाश्त नहीं। सात सांसदों में से 4 चुनाव जीत चुके हैं। तीन चुनाव हार गए है। ऐसे में उनके लिए आगे संकट रहेगा। राजस्थान के लिहाज से भाजपा के फाइनल नतीजे भी इसी तरह के आने की उम्मीद रहेगी। 2024 के चुनाव में जिस तरह कांग्रेस ने 70 से ज्यादा सीटें जीती हैं, ऐसे में कुछ सीटों पर मुकाबला रहेगा, लेकिन पिछले दो चुनावों की तरह प्रदर्शन से कोई नहीं रोक पाएगा।

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